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"सोशल मीडिया का बाप"

अनिल कुमार सागर, लेखक व पत्रकार

वरिष्ठ लेखक- स्वतंत्र पत्रकार, पूर्व उप सम्पादक: उजाले की ओर,"कीमया-ऐ-जीवन", राष्ट्रीय समाचार पत्र,  03, आनन्द कॉलोनी,चन्दौसी- 244412, उ.प्र.

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बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति भी डंडा उठाता है

Updated: Nov 13, 2020


उसने कहा: "आप क्या कह रहे हैं, बेकार है? यह वेद का वचन है।' और प्रमाण देने लगा। और रमण ने कहा कि अच्छा है, सब ठीक है, मगर तुम ध्यान तो करो। उसने कहा कि पहले इस संबंध में बातचीत होगी तभी ध्यान करूंगा। वह जिद्द पकड़े ही रहा, रमण उससे कहते रहे कि ध्यान करो। वे एक ही बात कहते थे कि ध्यान करो, और कुछ कहने को है भी नहीं। जब वह नहीं माना तो उन्होंने उठा लिया अपना डंडा...। वह आदमी घबड़ाया। उसने कभी सोचा नहीं था कि रमण और डंडा उठायेंगे। और रमण उसके पीछे दौड़े।...जरा सोचो महर्षि रमण को डंडा लिये, एक पंडित के पीछे दौड़ते...। अनेक रमण के अनुयायियों में बड़ा संदेह पैदा हो गया कि रमण और डंडा उठायें और क्रोधित हो जायें! यह तो पतन हो गया! कहीं ऐसा होता है? क्योंकि हमने धारणाएं बना ली हैं कि जो आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है वह डंडा थोड़े ही उठायेगा! हमें कुछ पता ही नहीं है। बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति भी डंडा उठाता है, हालांकि उसका डंडा उठाना तुम्हारे डंडा उठाने से बहुत भिन्न होता है...उठा सकता है वह। रमण उसे खदेड़कर भीतर आ गये, खूब खिलखिलाकर हंसने लगे...।

किसी ने पूछा: यह आपने क्या किया?

उन्होंने कहा: मैं और क्या करता? लातों की देवी बातों से मानती ही नहीं। वह सिर खाये ही जाता था। वह हटनेवाला था ही नहीं; वह डंडे की ही भाषा समझ सकता था। रमण क्रोधित नहीं हुए हैं। रमण और क्रोधित हों, यह संभव ही नहीं है। रमण अगर क्रोधित हो भी जायें, तुम्हें दिखाई पड़ें क्रोधित होते, तो भी क्रोधित नहीं होते। तुमने जीसस की कहानी तो सुनी है न! कि उन्होंने उठा लिया था कोड़ा, घुस गये थे मंदिर में, और मंदिर में जिन लोगों ने ब्याज की दुकानें खोल रखीं थीं उनके तख्ते उलट दिये थे। कोड़े मार कर उनको खदेड़कर बाहर कर दिया था...। अब जरा सोचो कि जीसस और कोड़े उठा कर लोगों को खदेड़ दें यह बात तो जंचती नहीं, फिर यह कैसा पहुंचा हुआ सिद्ध-पुरुष हुआ! तो यह भी क्रोधित हो गया तो धर्म से पतन हो गया। अब थोड़ा सोचो, रमण अगर धोखेबाज होते तो सोचते वे, थोड़ी कूटनीति करते कि डंडा उठाना कि नहीं उठाना? सोचते कि डंडा उठाऊंगा तो लोग क्या कहेंगे। ऐसा सोचकर डंडा न उठाते तो मैं कहता प्रज्ञापुरुष नहीं थे। लेकिन सहज छोटे बच्चे की भांति डंडा उठा लिया। जो जब जैसा जरूरी था, जिस परिस्थिति में उनके चैतन्य में जो भाव आविर्भूत हुआ, उसके अनुकूल जीये- न चिंता की कि तुम क्या सोचोगे, कि तुम क्या कहोगे। मैं तुम्हारी चिंता नहीं करता कि तुम क्या सोचोगे, तुम क्या कहोगे। मुझे जो सहज है, उस ढंग से जीता हूं। जो मुझे सहज कहना है, कहता हूं। जो कहा जाता है, कहता हूं। जो होता है, होने देता हूं। तुम्हारी धारणाएं तुम समझो। तुम्हें ठीक लगे ठीक, तुम्हें गलत लगे गलत; मेरी तरफ से न कुछ अब गलत है, न कुछ अब ठीक है। -

ओशो

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