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"सोशल मीडिया का बाप"

अनिल कुमार सागर, लेखक व पत्रकार

वरिष्ठ लेखक- स्वतंत्र पत्रकार, पूर्व उप सम्पादक: उजाले की ओर,"कीमया-ऐ-जीवन", राष्ट्रीय समाचार पत्र,  03, आनन्द कॉलोनी,चन्दौसी- 244412, उ.प्र.

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कल्पना कीजिए: एक व्यंग

कल्पना कीजिए उस देश की, जहाँ दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति होगी, जगमगाता हुआ भव्य राम मंदिर होगा, सरयू में देशी घी के छह लाख दीयों की अभूतपूर्व शोभायमान महा आरती हो रही होगी। सड़कों, गलियों और राष्ट्रीय राजमार्गों पर जुगाली और चिंतन में संलग्न गौवंश आराम फरमा रहा होगा। धर्म उल्लू की तरह हर आदमी के सर पर बैठा होगा ।

लेकिन, अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं होगी, दवाइयां, बेड, इन्जेक्शन नहीं होंगे। दुधमुंहे बच्चे बे-सांस दम तोड़ रहे होंगे। मरीज दर-ब-दर भटक रहे होंगे। देश में ढंग के स्कूल-कॉलेज नहीं होंगे, बच्चे कामकाज की तलाश में गलियों में भटक रहे होंगे। कोविड-19 जैसी महामारियां देश पर ताला लगा रही होगी और देश का प्रवासी मजदूर भूखे-प्यासे सैकड़ों मील की पैदल यात्रा कर रहे होंगे, आम जनता घुट-घुट कर जी रहे होंगे और तिल-तिल कर मर रहे होंगे ।


बेटियां स्कूलों, कॉलेजों, मेडिकल, इंजीनियरिंग संस्थाओं में न होकर सिर्फ़ सड़कों पर दौड़ रहे ट्रकों के पीछे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारों में ही होंगी और न्याय एक महँगा विलासिता की चीज होगा। बेटियों, महिलाओं के हत्यारों, बलात्कारियों और दूसरे जघन्यतम अपराधियों को पुलिस बल गार्ड-ऑफ़-ऑनर पेश कर रहे होंगे। अलग-अलग वेषभूषा में मुनाफ़ाखोर और अपराधी-प्रवृत्ति के लोग देश के सम्मानित और गणमान्य नागरिक होंगे और मीडिया उनका जय-जयकार कर रही होगी ।


विश्व स्तर के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान नहीं होंगे,अस्पताल नहीं होंगे, बेहतरीन किस्म की शोध संस्थान और प्रयोगशालाएं भी नहीं होंगी, भूख और बेरोजगारी से जूझती जनता के लिए चूरन होंगे, अवलेह और आसव होंगे, सांस रोकने-छोड़ने के करतब होंगे, अनुलोम-विलोम होगा, काढ़े होंगे और इन सबसे ऊपर, कोई शातिर तपस्वी उद्योगपति होगा, जो धर्म, अध्यात्म, तप-त्याग, और दर्शन की पुड़ियाओं में भस्म-भभूत और आरोग्य के ईश्वरीय वरदान लपेट रहा होगा। परंतु हमारे पास कुछ तो होंगे । हमारे पास गायें होगी, गोबर होगा, गोमूत्र होगा ।


सुव्यवस्थित और गौरवशाली राष्ट्रीयकृत बैंक भी नहीं होंगे, बीमा कंपनियां नही होंगी। महारत्न और नवरत्न कहे जाने वाले सार्वजनिक उपक्रम नही होंगे। अपनी-सी लगती वह रेल भी गरीबों की पहुँच से दूर होगी ।


देश एक ऐसी दुकान में बदल चुका होगा, जिसका शक्ल-सूरत किसी मंदिर जैसा होगा। देश ऐसा बदल चुका होगा जहाँ युवकों के लिए रथयात्राएं, शिलान्यासें और जगराते होंगे। गौ-रक्षा दल होंगे, और गौरव-यात्राएं होंगी। मुंह में गुटके की ढेर सारी पीक सहेजे बोलने और चीखने का अभ्यास साधे सैकड़ों-हजारों किशोर-युवा होंगे, जो कांवर लेकर आ रहे होंगे या जा रहे होंगे, या किसी नए मंदिर के काम आ रहे होंगे और खाली वक्त में जियो के सिम की बदौलत पुलिया में बैठे IT Cell द्वारा ठेले गए स्रोत से अपना ज्ञान बढ़ा रहे होंगे।


शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक-सामाजिक उन्नति के हिसाब से हम 1940-50 के दौर में विचर रहे होंगे। तर्क, औचित्य, विवेक से शून्य होकर पड़ोसी की जाति, गोत्र जानकर किलस रहे होंगे अथवा हुलस रहे होंगे। हम भूखों मर रहे होंगे परंतु अपने हिसाब से विश्वगुरु होंगे। हमारा आर्थिक विकास इतना सुविचारित होगा कि दुनिया का सस्ता डीजल, पेट्रोल हमारे यहां सबसे महंगा होगा। कोविड-19 जैसे महामारी के दौर में भी हम मास्क, सैनेटाइज़र और किट पर जीएसटी वसूल रहे होंगे।


हमारी ताक़त का ये आलम होगा कि कोई कहीं भी हमारी सीमा में नहीं घुसा होगा, फिर भी हमारे बीस-बीस सैनिक बिना किसी युद्ध के वीरगति को प्राप्त हो रहे होंगे। दुश्मन सरहद पर खड़ा होगा और हम टैंकों को जे.एन.यू. सरीखे विश्वविद्यालयों में खड़े कर रहे होंगे।

कोई खास मुश्किल नहीं है। बस थोड़ा अभ्यास करना होगा, उल्टे चलने और हमेशा अतीत की जुगाली करने और मिथकों में जीने की आदत डालनी होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, न्याय, समानता और लोकतंत्र जैसे राष्ट्रद्रोही विषयों को जेहन से जबरन झटक देना होगा। अखंड विश्वास करना होगा कि धर्म, संस्कृति, मंदिर, आरती, जागरण-जगराते, गाय-गोबर, और मूर्तियां ही विकास हैं। बाकी सब भ्रम है। यकीन मानिए शुरू में भले अटपटा लगे, पर यह चेतना बाद में बहुत आनंद देगी। मैंने अभ्यास प्रारम्भ कर दिया है ।


सावधान ‼️

राम नहीं, हमें बुद्ध चाहिए‼️

मंदिर नहीं, रोजगार चाहिये‼️

युद्ध नहीं, हमें शान्ति चाहिए‼️


साभार: व्हाट्सप्प पोस्ट

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